
चित्तौड़ की आत्मा भले राजस्थान में हो, पर उसका तेज गोरखपुर की गलियों में भी जलता है – उस व्यक्ति के ज़रिए, जिसे हम महंत दिग्विजयनाथ के नाम से जानते हैं।
28 सितंबर को उनके ब्रह्मलीन दिवस पर यह समझना जरूरी है कि क्यों गोरखपुर सिर्फ शिक्षा, साधना और सत्ता का केंद्र नहीं, संघर्ष, स्वाभिमान और संस्कार का केंद्र भी है।
पांच साल की उम्र में आए थे गोरखपुर, फिर कभी चित्तौड़ नहीं लौटे
महंत दिग्विजयनाथ का जन्म उदयपुर के राणा वंश में हुआ – वही वंश जिसने अकबर जैसे बादशाह के सामने घास की रोटी खा ली, पर घुटने नहीं टेके।
पांच वर्ष की उम्र में गोरखनाथ मठ आए, और फिर यहीं के होकर रह गए। चित्तौड़ लौटने की योजना बनी जरूर, लेकिन जैसे इतिहास ने खुद उन्हें गोरखपुर से जोड़ने का फैसला कर लिया था।
“शरीर चित्तौड़ का, आत्मा गोरखपुर की – और मिशन पूरे हिंदू समाज का।”
महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद: जब शिक्षा में घोड़ा और गौरव दोनों शामिल थे
1932 में जब अधिकतर नेता चुनाव या आंदोलन की रणनीति बना रहे थे, दिग्विजयनाथ जी ने पूर्वांचल में शिक्षा की अलख जगाने के लिए “महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद” की नींव रखी।
क्यों?
क्योंकि “राणा” सिर्फ तलवार नहीं, संस्कार भी देते हैं।
आज परिषद की 3 दर्जन से ज्यादा संस्थाएं शिक्षा के साथ-साथ ‘राष्ट्र’ की गूंज भी देती हैं।
गुरुदेव के शब्दों में राणा प्रेम
योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवेद्यनाथ ने लिखा —
“गुरुदेव अक्सर महाराणा प्रताप का जिक्र करते थे। कहते थे बाकी राजा इतिहास में दफन हो गए, पर राणा अमर हैं।”
यह सिर्फ इतिहास नहीं, दर्शन था—झुकना मना है।
जब ‘हिंदू’ शब्द बोलना बगावत था, तब वह उसे संसद में गूंज बना लाए
उल्लेखनीय है कि कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद वह हिंदू महासभा से जुड़ गए। 1961-1962 में वे हिंदू महासभा के हिंदू राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। 1967 में वह महासभा से चुने जाने वाले एकमात्र सांसद थे। 1930–60 का भारत… जहां ‘धर्मनिरपेक्ष’ कहलाना फैशन था और ‘हिंदू’ बोलना बैकवर्डनेस, वहां महंत दिग्विजयनाथ ने संसद में “हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान” की त्रयी को फिर से खड़ा कर दिया।
सांसद चुने गए—लेकिन अकेले नहीं लगे, क्योंकि “उनकी आवाज इतनी मजबूत थी कि संसद को सुनना ही पड़ता था।” — अटल बिहारी वाजपेयी

स्वदेश, स्वधर्म, स्वराज्य—जीवन का मिशन
कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद हिंदू महासभा का दामन थामा। 1961–62 में बन गए हिंदू महासभा के अध्यक्ष। सामाजिक समरसता, जाति तोड़ो आंदोलन, और धर्म सम्मेलन की बागडोर खुद संभाली। 1965 के विश्व हिंदू धर्म सम्मेलन में तीन शंकराचार्य और खुद राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन शामिल हुए – क्योंकि “दिग्विजय” सिर्फ नाम नहीं, प्रभाव था।
इंदिरा गांधी और अटल जी ने भी मानी महानता
इंदिरा गांधी:
“धर्म और शिक्षा के क्षेत्र में उनका स्थान ऊंचा था। गोरखपुर यूनिवर्सिटी की स्थापना में उनकी भूमिका स्मरणीय है।”
अटल बिहारी वाजपेयी:
“सांसद के रूप में अकेले थे, लेकिन जो कहते, मजबूती से कहते थे। उनकी देशभक्ति पर कोई सवाल नहीं उठा सकता।”
गोरखपुर का चित्तौड़ आज भी जिंदा है
महंत दिग्विजयनाथ कोई साधारण साधु नहीं थे। वो ऐसे संत थे, जिनके पास तप भी था, तेज भी विचार भी थे, विजन भी। उन्होंने साबित किया कि मंदिर सिर्फ आरती का केंद्र नहीं होता – वह विचार का केंद्र होता है।
आज की पीढ़ी से सवाल:
क्या हम उस चित्तौड़ को अपने भीतर जिंदा रख पाए हैं? क्या हमारे स्कूल सिर्फ सिलेबस पढ़ा रहे हैं, या संस्कार भी?
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